Tuesday, April 22, 2014

गंगा (Ganga RiveR)

गंगा को शास्त्रों में देव नदी एवं स्वर्ग की नदी कहा गया है। इस नदी को पृथ्वी पर लाने का काम महाराज भगीरथ ने किया था। महाराज भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगवान विष्णु के चरण से निकलने वाली गंगा को अपने सिर पर धारण करके पृथ्वी पर उतारने का वरदान दिया।
पुराणों में वर्णित कथा को आप आज भी अपनी आंखों से देख सकते हैं। हलांकि इसमें में आपको विष्णु और शिव के साक्षात दर्शन तो नहीं होंगे लेकिन उनके विग्रह को अवश्य देख सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि कलियुग में भगवान मनुष्य के समझ प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हो सकते।
क्योंकि आज का मानव हर चीज को तर्क की दृष्टि से देखता है जबकि आस्था तर्क पर नहीं विश्वास पर आधारित होती है। विश्वास हो तो पत्थर में भी ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन और चमत्कार देख सकते हैं और तर्क करेंगे तो प्रत्यक्ष प्रकट ईश्वर भी छल प्रतीत होगा। आस्था और तर्क में उलझने की बजाय गंगा अवतरण के लौकिक पहलुओं पर बात करते हैं।
भगवान बद्रीनाथ को विष्णु का साक्षात रूप मना गया है। और इसे बैकुण्ठ के समान पावन स्थान माना गया है। बद्रीनाथ धाम मंदिर के नीचे से अलकनंदा नदी निकलती है। अलकनंदा को गंगा का रूप माना गया है। यहां अलकनंदा का रूप देखकर आप स्वयं अनुभव करेंगे कि गंगा भगवान विष्णु के चरणों से निकल रही है।
इसके बाद आप पहुचेंगे केदारनाथ। केदारनाथ को भगवान शिव का प्रत्यक्ष रूप माना जाता है। केदारनाथ मंदिर से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर दूर गांधी सरोवर एवं रूप कुण्ड है। इसे भगवान शिव की जटा मान सकते हैं। गंगा अवतरण की कथा के अनुसार शिव ने अपनी जटा से एक धारा पृथ्वी पर उतारा इसे मंदाकिनी नदी मान सकते हैं।
कथा के अनुसार जब गंगा पृथ्वी पर उतरी तब पहली बार देवप्रयाग में प्रकट हुई थी। गंगा अवतरण देखने के लिए 33 कोटि देवी-देवता यहां पधारे थे। इस स्थान पर भगीरथी का मिलन अलकनंदा से होता है। शिव की जटा से निकली मंदाकिनी अलकनंदा से रूद्रप्रयाग में ही मिल जाती है। इस तरह देव प्रयाग में मंदाकिनी, अलकनंदा और भगीरथी मिलकर गंगा कहलाती हैं।
गंगा अवतरण की कथा का आधार सगर के पुत्रों को मुक्ति दिलाना है। सगर के पुत्र जहां ऋषि के शाप से भष्म हुए थे वह स्थान वर्तमान में पश्चिम बंगाल में स्थित गंगासागर नामक स्थान है जहां गंगा, सागर की गोद में समा जाती है। ये तीनों नदियां काफी मात्रा में जल लेकर आती है।
अगर राजा भगीरथ केवल भागीरथी का जल लेकर इतनी लंबी दूरी तय करते तो शायद बीच मे ही गंगा विलुप्त हो जाती इसलिए देव प्रयाग में इन तीनों नदियों का संगम कराया गया और संसार के सामने भक्ति और शक्ति का अद्भुत मिलन गंगा के रूप में प्रस्तुत हुआ।

Saturday, April 19, 2014

पुरी में जगन्नाथ मंदिर केे कुछ आश्चर्यजनक तथ्य:-


पुरी में जगन्नाथ मंदिर केे कुछ आश्चर्यजनक तथ्य:-


1. मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।

2. पुरी में किसी भी स्थान से आप मन्दिर के ऊपर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।

3. सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है, और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है ।

4. पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पायेगें।

5. मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है ।

6. मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, चाहे हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं ।

7. मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखा जाता है और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है । इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है।

8. मन्दिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि नहीं सुन सकते, आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं, इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

साथ में यह भी जाने:-
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मन्दिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है।

प्रति दिन सांयकाल मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़ कर बदला जाता है।

मन्दिर का क्षेत्रफल चार लाख वर्ग फिट में है।

मन्दिर की ऊंचाई 214 फिट है।

विशाल रसोई घर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोईये एवं उनके 300 सहायक-सहयोगी एक साथ काम करते है। सारा खाना मिट्टी के बर्तनो मे पकाया जाता है !

हमारे पूर्वज कितने बढे इंजीनियर रहें होंगे

अपनी भाषा अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता पर गर्व करो
गर्व से कहो हम हिन्दुस्तानी है

ॐ ॐ

THE SCIENCE BEHIND TEMPLE BELLS



THE SCIENCE BEHIND TEMPLE BELLS
Most of the old temples have large bell at the entrance of the temple and you need to ring it before you enter temple. A Temple bell have a scientific phenomena; it is not just your ordinary metal. It is made of various metals including cadmium, lead, copper, zinc, nickel, chromium and manganese. The proportion atwhich each one of them mixed is real science behind a bell. Each of these bells is made to produce such a distinct sound that it can create unity of your left andright brain. The moment you ring that bell, bell produces sharp but lastingsound which lasts for minimum of seven seconds in echo mode good enough totouch your seven healing centres or chakras in your body. The moment bell sound happens your brain is emptied of all thoughts. Invariably you will enter state of Tran’s state where you are very receptive. This Trans state is the one with awareness. You are so occupied in mind that only way to awaken you is with a Shock! Bell works as Anti-dote to your mind. Before you enter temple – to awake you and prepare you for taste of awareness is the real reason behind temple bell.

Friday, April 18, 2014

आयुर्वेद के अनुसार खीरा स्वादिष्ट, शीतल, प्यास, दाहपित्त तथा रक्तपित्त दूर करने वाला रक्त विकार नाशक है।


*आयुर्वेद के अनुसार खीरा स्वादिष्ट, शीतल, प्यास, दाहपित्त तथा रक्तपित्त दूर करने वाला रक्त विकार नाशक है।खीरा व ककड़ी एक ही प्रजाति के फल हैं। खीरे में विटामिन बी व सी, पोटेशियम, फास्फोरस, आयरन आदि विद्यमान होते हैं।
* पेट की गैस, एसिडिटी, छाती की जलन में नियमित रूप से खीरा खाना लाभप्रद होता है।
* जो लोग मोटापे से परेशान रहते हैं उन्हें सवेरे इसका सेवन करना चाहिये। इससे वे पूरे दिन अपने आपको फ्रेश महसूस करेंगे। खीरा हमरी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है।
* खीरे को भोजन में सलाद के रूप में अवश्य लेना चाहिये। नमक, काली मिर्च व नींबू डालकर खाने से भोजन आसानी से पचता है व भूख भी बढ़ती है।
* घुटनों के दर्द को भी दूर भगाता है खीरे का सेवन। घुटनों के दर्द वाले व्यक्ति को खीरे अधिक खाने चाहिये तथा साथ में एक लहसुन की कली भी खा लेनी चाहिये।
* पथरी के रोगी को खीरे का रस दिन में दो-तीन बार जरूर पीना चाहिये। इससे पेशाब में होने वाली जलन व रुकावट दूर होती हैं।
सेहत के लिए गुणकारी :
खीरा रक्तचाप को भी काबू में रखने में कारगार है। इसमें मौजूद पोटेशियम ज्यादा और कम दोनों तरह के रक्तचाप को नियंत्रित रखता है।
अगर आपके नाखून बार- बार टूट जाते हैं तो आज ही खीरे का सेवन शुरू करें, यह आपके नाखूनों को मजबूती देता है। गैस की समस्या में भी खीरा बेहद लाभदायक होता है।
अगर आप किडनी या लीवर की समस्या से परेशान हैं तो खीरे का नियमित रूप से सेवन करने से आपके बालों को भी फायदा होगा।
अपने बालों का सेहतमंद रखने के लिए खीरे के जूस का सेवन करें। इसके नियमित इस्तेमाल से बाल लंबे और घने होते हैं। दांतों और मसूढ़े से जुड़ी समस्या और पायरिया जैसे रोग में भी खीरा फायदेमंद है।
खीरे का उपयोग करते समय कुछ सावधानियां भी बरतें जैसे :-
खीरा कभी भी बासी न खाएं।
जब भी खीरा खरीदें यह जरूर देख लें कि वह कहीं से गला हुआ न हो।
खीरे का सेवन रात में न करें। जहां तक हो सके, दिन में ही इसे खाये।
खीरे के सेवन के तुरंत बाद पानी न पियें।

Wednesday, April 16, 2014

ककड़ी के फ़ायदे



कच्ची ककड़ी में आयोडीन पाया जाता है। ककड़ी बेल पर लगने वाला फल है। गर्मी में पैदा होने वाली ककड़ी स्वास्थ्यवर्ध्दक तथा वर्षा व शरद ऋतु की ककड़ी रोगकारक मानी जाती है। ककड़ी स्वाद में मधुर, मूत्रकारक, वातकारक, स्वादिष्ट तथा पित्त का शमन करने वाली होती है।
उल्टी, जलन, थकान, प्यास, रक्तविकार, मधुमेह में ककड़ी फ़ायदेमंद हैं। ककड़ी के अत्यधिक सेवन से अजीर्ण होने की शंका रहती है, परन्तु भोजन के साथ ककड़ी का सेवन करने से अजीर्ण का शमन होता है।
ककड़ी की ही प्रजाति खीरा व कचरी है। ककड़ी में खीरे की अपेक्षा जल की मात्रा ज़्यादा पायी जाती है। ककड़ी के बीजों का भी चिकित्सा में प्रयोग किया जाता है।
ककड़ी का रस निकालकर मुंह, हाथ व पैर पर लेप करने से वे फटते नहीं हैं तथा मुख सौंदर्य की वृध्दि होती है।
बेहोशी में ककड़ी काटकर सुंघाने से बेहोशी दूर होती है।
ककड़ी के बीजों को ठंडाई में पीसकर पीने से ग्रीष्म ऋतु में गर्मीजन्य विकारों से छुटकारा प्राप्त होता है।
ककड़ी के बीज पानी के साथ पीसकर चेहरे पर लेप करने से चेहरे की त्वचा स्वस्थ व चमकदार होती है।
ककड़ी के रस में शक्कर या मिश्री मिलाकर सेवन करने से पेशाब की रुकावट दूर होती है।
ककड़ी की मींगी मिश्री के साथ घोंटकर पिलाने से पथरी रोग में लाभ पहुंचता है।

Sunday, April 13, 2014

प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र : सनातन वैदिक विज्ञान का अप्रतिम स्वरूप

लेख थोडा बडा ही लेकीन पढ़ने का कष्ट करें और पसंद आने पर शेयर भी करें 

प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र : सनातन वैदिक विज्ञान का अप्रतिम स्वरूप

हिंदू वैदिक ग्रंथोँ एवं प्राचीन मनीषी साहित्योँ मेँ वायुवेग से उड़ने वाले विमानोँ (हवाई जहाज़ोँ) का वर्णन है, सेकुलरोँ के लिए ये कपोल कल्पित कथाएं हो सकती हैँ, परन्तु धर्मभ्रष्ट लोगोँ की बातोँ पर ध्यान ना देते हुए हम तथ्योँ को विस्तार देते हैँ।ब्रह्मा का १ दिन, पृथ्वी पर हमारे वर्षोँ के ४,३२,००००००० दिनोँ के बराबर है। और यही १ ब्रह्म दिन चारोँ युगोँ मेँ विभाजित है यानि, सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं वर्तमान मेँ कलियुग।

सतयुग की आयु १,७२,८००० वर्ष निर्धारित है, इसी प्रकार १,००० चक्रोँ के सापेक्ष त्रेता और कलियुग की आयु भी निर्धारित की गई है।
सतयुग मेँ प्राणी एवं जीवधारी वर्तमान से बेहद लंबा एवं जटिल जीवन जीते थे, क्रमशः त्रेता एवं द्वापर से कलियुग आयु कम होती गई और सत्य का प्रसार घटने लगा,

उस समय के व्यक्तियोँ की आयु लम्बी एवं सत्य का अधिक प्रभाव होने के कारण उनमेँ आध्यात्मिक समझ एवं रहस्यमयी शक्तियां विकसित हुई, और उस समय के व्यक्तियोँ ने जिन वैज्ञानिक रचनाओँ को बनाया उनमेँ से एक थी "वैमानिकी"।
उस समय की मांग के अनुसार विभिन्न विमान विकसित किए गए, जिन्हेँ भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओँ के आदेश पर यक्षोँ (जिन्हेँ इंजीनियर कह सकते हैँ) ने बनाया था,

ये विमान प्राकृतिक डिज़ाइन से बनाए जाते थे, इनमेँ पक्षियोँ के परोँ जैसी संरचनाओँ का प्रयोग जाता था, इसके पश्चात् के विमान, वैदिक ज्ञान के प्रकांड संतएवं मनीषियोँ द्वारा निर्मित किए गए, तीनोँ युगोँ के अनुरूप विमानोँ केभी अलग अलग प्रकार होते थे,

प्रथम युग सतयुग मेँ विमान मंत्र शक्ति से उड़ा करते थे, द्वितीय युग त्रेता मेँ मंत्र एवं तंत्र की सम्मिलित शक्ति का प्रयोग होता था, तृतीय युग द्वापर मेँ मंत्र-तंत्र-यंत्र तीनोँ की सामूहिक ऊर्जा से विमान उड़ा करते थे, वर्तमान मेँ अर्थात् कलियुग मेँ मंत्र एवं तंत्र के ज्ञान की अथाह कमी है, अतः आज के विमान सिर्फ यंत्र (मैकेनिकल) शक्ति से उड़ा करते हैँ,

युगोँ के अनुरूप हमेँ विमानोँ के प्रकारोँ की संख्या ज्ञात है, सतयुग मेँ मंत्रिका विमानोँ के २६ प्रकार (मॉडल) थे, त्रेता मेँ तंत्रिका विमानोँ के ५६ प्रकार थे, तथा द्वापर मेँ कृतिका (सम्मिलित) विमानोँ के भी २६ प्रकार थे,
हालांकि आकार और निर्माण के संबंध मेँ इनमेँ आपस मेँ कोई अंतर नहीँ हैँ।

महान भारतीय आचार्य महर्षि भारद्वाज ने एक ग्रंथ रचा, जिसका नाम है, "विमानिका" या "विमानिका शास्त्र"

१८७५ ईसवीँ में दक्षिण भारत के एक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का बताया जाता है, इस ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के ९७ अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा २० ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियां अब लुप्त हो चुकी हैं। कई कृतियोँ को तो विधर्मियोँ ने नालंदा विश्वविद्यालय मेँ जला दिया,

इस महान ग्रंथ मेँ विभिन्न प्रकार के विमान, हवाई जहाज एवं उड़न-खटोले बनाने की विधियाँ दी गई हैँ, तथा विमान और उसके कलपुर्जे तथा ईंधन के प्रयोग तथा निर्माण की विधियोँ का भी सचित्र वर्णन किया गया है, उन्होँने अपने विमानोँ मेँ ईंधन या नोदक अथवा प्रणोदन (प्रोपेलेँट) के रूप मेँ पारे (मर्करी Hg) का प्रयोग किया।

बहुत कम लोग जानते हैँ कि कलियुग का पहला विमान राइट ब्रदर्स ने नहीँ बनाया था, पहला विमान १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे, ने अपनी पत्नी (जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषा थीं) की सहायता से बनाया एवं उड़ाया था। उन्होँने एक मरुत्सखा प्रकार के विमान का निर्माण किया। इसकी उड़ान का प्रदर्शन तलपड़े ने मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर शिवाजी राव गायकवाड़ और बम्बई के प्रमुख नागरिक लालजी नारायण के सामने किया था। विमान १५०० फुट की ऊंचाई तक उड़ा और फिर अपने आप नीचे उतर आया। बताया जाता है कि इस विमान में एक ऐसा यंत्र लगा था, जिससे एक निश्चित ऊंचाई के बाद उसका ऊपर उठना बन्द हो जाता था। इस विमान को उन्होंने महादेव गोविन्द रानडे को भी दिखाया था।

दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर, १९१८ ईँसवी को उनका देहावसान हो गया।

राइट ब्रदर्स के काफी पहले वायुयान निर्माण कर उसे उड़ाकर दिखा देने वाले तलपड़े महोदय को आधुनिक विश्व का प्रथम विमान निर्माता होने की मान्यता देश के स्वाधीन (?) हो जाने के इतने वर्षों बाद भी नहीं दिलाई जा सकी, यह निश्चय ही अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। और इससे भी कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पाठ्य-पुस्तकों में शिवकर बापूजी तलपड़े के बजाय राइटब्रदर्स (राइट बन्धुओं) को ही अब भी प्रथम विमान निर्माता होने का श्रेय दिया जा रहा है, जो नितान्त असत्य है।

"समरांगन:-सूत्र धारा" नामक भारतीय ग्रंथ मेँ भी विमान निर्माण संबंधी जानकारी है। इस ग्रंथ मेँ युद्ध के समय वैमानिक मशीनोँ के प्रयोग का वर्णन है, इस ग्रंथ मेँ संस्कृत के २३० श्लोक हैँ, स्थान की कमी के कारण हम यहाँ इस ग्रंथ के पूरे श्लोक नहीँ लिख रहे हैँ, अन्यथा लेख लंबा हो जाएगा।

परन्तु हम इस ग्रंथ के १९० वेँ श्लोक का अनुवाद अवश्य कर रहे हैँ :-

"[२:२० . १९०] परिपत्रोँ से पूर्ण विमान के दाहिने पंख से अंदर जाते हुए केंद्र पर ध्वनि की गति से पारे को ईँधन के सापेक्ष पहुँचाने पर एक छोटी पर अधिक दबाव वाली आंतरिक ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो आपके यंत्र को आकाश मेँ शनैः शनैः ले जाएगी, जिससे यंत्र के अंदर बैठा व्यक्ति अविस्मरणीय तरीके से नभ की यात्रा करेगा, चार कठोर धातु से बने पारे के पात्रोँ का संयोजन उचित स्थिति मेँ किया जाना चाहिए, एवं उन्हेँ नियंत्रित तरीके से ऊष्मा देनी चाहिए, ऐसा करने से आपका विमान आकाश मेँ चमकीले मोती के समान उड़ता नज़र आएगा।।"

इस ग्रंथ के एक गद्य का अनुवाद इस प्रकार है -

"सर्वप्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। तत्पश्चात अन्य विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-


(१) रुकमा – रुकमा नुकीले आकार के और स्वर्ण रंग के विमान थे।


(२) सुन्दरः –सुन्दर: त्रिकोण के आकार के तथा रजत (चाँदी) युक्त विमान थे।


(३) त्रिपुरः – त्रिपुरः तीन तल वाले शंक्वाकार विमान थे।


(४) शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था। तथा ये अंतर्राक्षीय विमान थे।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का प्रशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुर्ज़े, उपकरण, चालकों एवं यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये। ग्रंथ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबू अथवा सेब या अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

साथ ही, ७ प्रकार के इंजनों का वर्णन किया गया है, तथा उनका किस विशिष्ट उद्देश्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊंचाई पर उसका प्रयोग सफल और उत्तम होगा ये भी वर्णित है।

ग्रंथ का सारांश यह है कि इसमेँ प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्ध है। विमान आधुनिक हेलीकॉप्टरों की तरह सीधे ऊंची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे-पीछे तथा तिरछा चलने में भी सक्षम बताये गये हैं

इसके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रंथोँ - रामायण, महाभारत, चारोँ वेद, युक्तिकरालपातु (१२ वीं सदी ईस्वी) मायाम्तम्, शतपत् ब्राह्मण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, भागवतपुराण, हरिवाम्सा, उत्तमचरित्र ,हर्षचरित्र, तमिल पाठ जीविकाचिँतामणि, मेँ तथा और भी कई वैदिक ग्रंथोँ मेँ भी विमानोँ के बारे मेँ विस्तार से बताया गया है,

महर्षि भारद्वाज के शब्दों में - "पक्षियों की भान्ति उडने के कारण वायुयान को विमान कहते हैं, (वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।)


विमानों के प्रकार:-


(१) शकत्युदगम विमान -"विद्युत से चलने वाला विमान"


(२) धूम्र विमान - "धुँआ, वाष्प आदि से चलने वाला विमान"


(३) अशुवाह विमान - "सूर्य किरणों से चलने वाला विमान",


(४) शिखोदभग विमान - "पारे से चलने वाला विमान",


(५) तारामुख विमान -"चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला विमान",


(६) मरूत्सख विमान - "गैस इत्यादि से चलने वाला विमान"


(७) भूतवाहक विमान - "जल,­अग्नि तथा वायु से चलने वाला विमान"


वो विमान जो मानवनिर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडनतशतरियों’ के अनुरूप है। विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया।


प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्होंने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान-विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

प्रथम ग्रंथ :

(१) ऋगवेद- इस आदिग्रन्थ में कम से कम २०० बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हेँ अश्विनों (वैज्ञानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणतया तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण,रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई संदेह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी।


यातायात के लिये ऋग्वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-


(१) जलयान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ६.५८.३)


(२) कारायान – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ९.१४.१)


(३) त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋगवेद ३.१४.१)


(४) त्रिचक्र रथ – यह रथ के समान तिपहिया विमान आकाश में उड़ सकता था। (ऋगवेद ४.३६.१)


(५) वायुरथ – रथ के जैसा ये यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ५.४१.६)


(६) विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ३.१४.१).


द्वितीय ग्रंथ :


(२) यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी एक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिसका निर्माण जुड़वा अश्विन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्होँने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

तृतीय ग्रंथ :


(३) यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रंथ भी महर्षि भारद्वाज रचित है। इसके ४० भाग हैं जिनमें से एक भाग मेँ ‘विमानिका प्रकरण’ के आठ अध्याय, लगभग १०० विषय और ५०० सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारद्वाज ने विमानों को तीन श्रैँणियों में विभाजित किया हैः-


(१) अन्तर्देशीय – जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।


(२) अन्तर्राष्ट्रीय – जो एक देश से दूसरे देश को जाते हैँ।


(३) अन्तर्राक्षीय – जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते हैँ।


इनमें सें अति-उल्लेखनीय सैनिक विमान थे जिनकी विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं।

उदाहरणार्थ - सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-


पूर्णत्या अटूट,
अग्नि से पूर्णतयाः सुरक्षित आवश्यक्तता पड़ने पर पलक झपकने मात्र के समय मेँ ही एक दम से स्थिर हो जाने में सक्षम, शत्रु से अदृश्य हो जाने की क्षमता (स्टील्थ क्षमता), शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्षम। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृश्योँ को विमान मेँ ही रिकार्ड कर लेने की क्षमता, शत्रु के विमानोँ की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना, शत्रु के विमान चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता, निजी रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता, आवश्यकता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता, चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता, स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता, हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बड़ा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णतयाः नियन्त्रित कर सकने की सक्षमता,


विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ विमानोँ और अन्य हवाई जहाज़ोँ का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारद्वाज कोई आधुनिक ‘फिक्शन राइटर’ तो थे नहीं। परन्तु ऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित करता है, कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञानिक माडल का विचार कैसे किया।


उन्होंने अंतरिक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती-बाड़ी का ज्ञान भी हासिल नहीं कर पाये थे।


चतुर्थ ग्रंथ :


(४) कथा सरित सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों (इंजीनियरोँ) का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वाले विमानों को बना सकते थे। यह रथ विमान मन की गति से चलते थे।


पंचम ग्रंथ :


(५) अर्थशास्त्र - चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सेविकाओं (पायलट) का भी उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उड़ाती थी। चाणक्य ने उनके लिये विशिष्ट शब्द "आकाश युद्धिनाः" का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलट)


आकाश-रथ, का उल्लेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी किया गया है जो उसके काल (२३७-२५६ ईसा पूर्व) में लगाये गये थे।

भारद्वाज मुनि ने विमानिका शास्त्र मेँ लिखा हैं, -"विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है।"


शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। क्योँकि वहीँ सफल पायलट हो सकता है।


विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है।


अब हम कुछ विमान रहस्योँ की चर्चा करेँगे।


(१) कृतक रहस्य - बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार हम विश्वकर्मा , छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्रोँ के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बना सकते , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर यानी कल-पुर्जोँ का वर्णन है।


(२) गूढ़ रहस्य - यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने (स्टील्थ मोड) की विधि दी गयी है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण हरने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।


(३) अपरोक्ष रहस्य - यह नौँवा रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।


(४) संकोचा - यह दसवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।


(५) विस्तृता - यह ग्यारहवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा या छोटा करना होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।


(६) सर्पागमन रहस्य - यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी - मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है, उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी - मेढ़ी हो जाती है।


(७) परशब्द ग्राहक रहस्य - यह पच्चीसवाँ रहस्य है। इसमें कहा गया है कि शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।


(८) रूपाकर्षण रहस्य - इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का दृश्य देखा जा सकता है।


(९) दिक्प्रदर्शन रहस्य - दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा का पता चलता है।


(९) स्तब्धक रहस्य - एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग मूर्छित हो जाते हैं।


(१०) कर्षण रहस्य - यह बत्तीसवाँ रहस्य है, इसके अनुसार आपके विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार दिशा से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।


"विमान-शास्त्री महर्षि शौनक" आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा "महर्षि धुण्डीनाथ" विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या तूफानोँ का उल्लेख करते हैं और उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।


आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -


(१) १० किलोमीटर - रेखा पथ - शक्त्यावृत्त तूफान या चक्रवात आने पर


(२) ५० किलोमीटर - वातावृत्त - तेज हवा चलने पर


(३) ६० किलोमीटर - कक्ष पथ - किरणावृत्त सौर तूफान आने पर


(४) ८० किलोमीटर - शक्तिपथ - सत्यावृत्त बर्फ गिरने पर


एक महत्वपूर्ण बात विमान के पायलटोँ को विमान मेँ तथा पृथ्वी पर किस तरह भोजन करना चाहिए इसका भी वर्णन है
उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज के विमान की उतरने की जगह (लैँडिग) निश्चित है, पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे।


अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना चाहिए, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया गया है, जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। जब तक दूसरे विमान आपको खोज नहीँ लेते।


विमानिका शास्त्र में कहा गया है कि पायलट को विमान कभी खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए। १९९० में अमेरिकी वायुसेना ने १० वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है। 

अब जरा विमानोँ मेँ लगे यंत्रोँ और उपकरणोँ के बारे मेँ तथ्य प्रस्तुत कियेँ जाएं -


"विमानिका-शास्त्र" में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनके विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है -


(१) विश्व क्रिया दर्पण - इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गतिविधियों का दर्शन पायलट को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।


(२) परिवेष क्रिया यंत्र - ये यंत्र विमान की गति को नियंत्रित करता था।


(३) शब्दाकर्षण मंत्र - इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को "पक्षी-टकराने" जैसी दुर्घटना से बचाया जा सकता था।


(४) गर्भ-गृह यंत्र - इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजा जाता था।


(५) शक्त्याकर्षण यंत्र - इस यंत्र का कार्य था, विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें ऊष्णता में परिवर्तित करना और ऊष्णता के वातावरण में छोड़ना।


(६) दिशा-दर्शी यंत्र - ये दिशा दिखाने वाला यंत्र था (कम्पास)।


(७) वक्र प्रसारण यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।


(८) अपस्मार यंत्र - युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।


(९) तमोगर्भ यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।


"विमानिका-शास्त्र" मेँ विमान को संचालित करने हेतु विभिन्न ऊर्जा स्रोतोँ का वर्णन किया गया है, महर्षि भारद्वाज इसके लिए तीन प्रकार के ऊर्जा स्रोतों उल्लेख करते हैं।


(१) विभिन्न दुर्लभ वनस्पतियोँ का तेल - ये ईँधन की भाँति काम करता था।


(२) पारे की भाप - प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह जब ऊपर गया, तब उसमेँ विस्फोट हो गया। पर यह सिद्ध हो गया कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है, इस दिशा मेँ अभी और कार्य करने बाकी हैँ।


(३) सौर ऊर्जा - सूर्य की ऊर्जा द्वारा भी विमान संचालित होता था। सौर ऊर्जा ग्रहण कर विमान उड़ाना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से सूर्य शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। सेटेलाइट इसी प्रक्रिया द्वारा चलते हैँ।


"विमानिका-शास्त्र" मेँ महर्षि भारद्वाज विमान बनाने के लिए आवश्यक धातुओँ का वर्णन किया है, पर प्रश्न उठता है कि क्या "विमानिका-शास्त्र" ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके?
यदि कोई ऐसा भाग है, तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं?
क्या उनमें कुछ सफलता मिली है
सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं।


हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने "विमानिक-शास्त्र" ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशाष्पद हैं।


अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में उन्हेँ सफलता मिली है।


(१) प्रथम धातु है "तमोगर्भ-लौह" इसके बारे मेँ हमने अभी ऊपर बताया है, विमानिका-शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य (स्टील्थ मोड मेँ डालने) करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ये ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा लेड से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्‌यूरिक एसिड में भी नहीं गलती।


(२) दूसरी धातु जो उन्होँने बनाई है, उसका नाम है पंच लौह, यह रंग में स्वर्ण जैसी है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है, कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है, जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु विचित्र गुणोँ से परिपूर्ण है।


(३) तीसरी धातु का नाम है"ऑरर" यह ताँबा आधारित मिश्र धा ☀

इन अध्ययनोँ पर बनारस विश्वविद्यालय के एक रीडर ने कहा था


"This is the Study of Various Materials Described in Vimanika Shastra of Great Maharshi Bharadwaja"


इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भारद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जिकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी.रामचन्द्र राव के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम "प्रकाश स्तंभनभिद् लौह" है। इसकी विशेंषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण कचर लौह – सिलिका, भूचक्र सुरमित्रादिक्षर - चूना
अयस्कान्त - इन खनिजोँ के द्वारा, अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया है।


प्रकाश स्तंभनभिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन-हाईग्रोस्कोपिक है, नॉन-हाईग्रोस्कोपिक काँचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश नहीँ हटता है, और वे सुरक्षित रहते हैं।


प्रकाश स्तंभनभिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारेड सिग्नल्स में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।


तो देखा आपने भारतीय हिँदू सभ्यता और सनातन संस्कृति का अनुपम वैज्ञानिक उदाहरण,


अगर आपने पूरा लेख ध्यान से पढ़ा होगा तो आपको पता चल गया होगा कि सनातन संस्कृति क्या है,


पूर्णतः वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण इसकी श्रेष्ठता को विस्तार देते हैँ,


अब रही बात उपरोक्त लेख को नकाराने वाले सेकुलरोँ की, तो इसमेँ उनकी कोई गलती नहीँ है, "क्योँकि विधर्मियोँ के शुक्राणुओँ वाली "हाइब्रिड-नस्ल" की संतानोँ की मानसिकता ऐसी ही होती है,


क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इन विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं?


अब जरा अन्य देशोँ पर नज़र डाले तो कुछ इस तरह की कहानियाँ निकल के आऐँगी -


"पीटर नामक फरिश्ता अपने हंस जैसे चार पंख फैलाता है और आग की बारिश करते हुए उड़ जाता है","फिर माइकल नाम का फरिश्ता बत्तख के पंख काटकर अपने पीछे लगाता है और उड़कर स्वर्ग मेँ पहुँच जाता है","या फिर सलमा परी जख्मी अबू को उठाती है और उड़न-कालीन मेँ बिठाकर घर भेज देती है","फिर किसी हातिमताई को कोई व्हेल मछली के आकार का बाज उठाकर ले जाता है", "अब सिँदबाद आता है और काले बादलोँ के ऊपर बैठ कर दुनिया का चक्कर लगाने निकल पड़ता है", "फिर कोई 'गुलफाम’ पंख लगे उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर किसी ‘हसीन परी’ से शादी करने आ धमकता है","आखिर मेँ अलादीन एक चिराग रगड़ता है, और जिन्न महाशय एक जादुई कालीन हाथ मेँ लेकर प्रकट हो जाते हैँ, और फिर दोनोँ अपने बंदर के साथ कालीन मेँ बैठकर रेगिस्तान के बीच मेँ बने सुल्तान के महल मेँ "शैताने-वाहियात " को मारने निकल पड़ते हैँ।"


तो कहने का तात्पर्य ये है कि भारतीय सनातन संस्कृति एवं सभ्यता के आगे किसी भी तरह की "मिथ" कही नहीँ ठहर सकती,


इतने वैज्ञानिकता से परिपूर्ण तथ्य सिर्फ सनातनी दे सकते हैँ,


सनातन संस्कृति पर गर्व कीजिए


लेख के लम्बा होने पर क्षमा चाहता हूँ, अगर आपने लेख पूरा पढ़ा है तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, इसका प्रचार करके दूसरोँ को भी पढ़ने के लिए प्रेरित कीजिए।

Thursday, April 10, 2014

सोमरस और शराब में बहुत बड़ा अंतर है


सबसे जादा चाय कोफ़ी से भी पहले बियर, वाइन , हुइस्कि ..शराब एक ऐसा आहार है जो आपके शारीर को जरुरत से जादा गरम कर देता है । और शारीर में जरुरत से जादा गर्मी आने के कारन ही मनुष्य वो सब करता जो सामान्य स्थिति में उससे वो करने की अपेक्षा नही की जा सकती । तो आपकी शारीर को बहुत जादा गरम करे ऐसी शराब अगर है तो ये प्रकृति के अनुकूल नही है, और जो आपके प्रकृति के अनुकूल नही है वो आपकी संस्कृति के भी अनुकूल नही है । क्योंकि आपके प्रकृति के संस्कार ही संस्कृति को निर्धारित करेंगे न, तो आपके संस्कृति के अनुकूल नही है तो शराब न पिये । राजीव भाई ने कुछ परिक्षण किये - जब भी एक साधारण स्वस्थ व्यक्ति को कोई भी शराब पिलाई जाये तो तुरंत उसका Blood Pressure बढना सुरु हो जाता है । अगर इसको आयुर्वेद की भाषा में कहा जाये तो तुरन्त उसका पित्त बढना सुरु हो जाती है , पित्त माने आग लगना सुरु होती है शारीर में । अब हमारा शारीर तो समशीतोष्ण है , जब आग लगेगी शारीर में तो शारीर की साडी प्रतिरक्षा प्रणाली इस आग को शांत करने में लगेगी, और परिरक्ष प्रणाली को काम करने के लिए रक्त इंधन के रूप में चाहिये ; तो आप का रक्त शरीरी का सरे अंगो से भाग कर उहाँ आयेगा जहां आपकी आग को शांत करने का काम चलेगा , माने पेट की तरफ सारा रक्त आ जायेगा । इसका माने रक्त जहां जाना चाहिए उहाँ नही होगा, ब्रेन को चाहिए उहाँ नही है, हार्ट को चाहिए उहाँ नही है, किडनी को चाहिए उहाँ नही है, लीवर को चाहिए उहाँ नही है .. वो सब आ गया पेट में , और ये रहेगा दो से पांच घंटे तक मने दो से पांच घंटे तक आपके शारीर के बाकि ओर्गन्स रक्त की कमी से तड़पेंगे और उनमे खराबी आना सुरु हो जायेंगे । इसलिए शराब पिने वालो के अन्दर के सारे अंग ख़राब होते है और उनको मृत्यु की डर सबसे जादा होते है । इसलिए भारत की प्रकृति और संस्कृति में शराब का स्थान नही है ।

लोग कहते है के, लेकिन सोमरस तो था !! सोमरस और शराब में बहुत बड़ा अंतर है - सोमरस और शराब में अंतर उतना ही है जितना डालडा और गाय के घी में है । सोमरस जो है आयुर्वेद का एक औषधीय रूप है जो आपके शारीर के शांत पित्त को बढाने का काम करता है, माने भूख जादा ठीक से लगे इसके लिये सोमरस पिया जाता है भारत में । शराब और सोमरस में जमीन असमान का अंतर है - शराब क्या करती है जो पित्त आपके शारीर में शांत है उसको भड़का देती है, एक सुलगना होता है एक भड़कना होता है । आग कहीं धीरे धीरे सुलग रहा है तो खतरे की सम्भावना बहुत कम हैं और आग भड़क के लग गयी है तो अस पड़ोसके बिल्डिंग ऐ जल जाएगी । तो शराब जो है वो पित्त को भड़काती है और सोमरस पित्त को सुलगाती है । तो सुलगा हुआ पित्त ये तो हमे चाहिये पर भड़का हुआ नही चाहिये , मने सरब नही चाहिये .. अगर चाहिये तो सोमरस चाहिये । अगर कोई सोमरस पिता है तो उसे जिन्दगी में कभी भी पित्त का रोग नही होगा । सोमरस बहुत ही संतुलित है जैसे नीबू की सरवत और शराब नीबू का रस ।
भारतीय संस्कृति का हिस्सा नही है शराब । और इतनी शराब जो लोग पिने लगे है वो यूरोप की नक़ल से आये, दुर्भाग्य से 450 साल तक हम भारतवासी यूरोपियन की सांगत में फंस गये या तो उनके गुलाम हो गये, तो उनकी नक़ल कर कर के हमने ये सुरु कर दिया ।

Sunday, April 6, 2014

रसोईघर ही है प्राथमिक चिकित्सालय

किसी ने सच ही कहा है कि जान है तो जहान है। फिर आरोग्य हमारा जन्मसिद्घ अधिकार है और हमें अपने आरोग्य के प्रति सदैव सजग रहना चाहिए। आचार-विचार, खान - पान,जीवन शैली का सीधा प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पडता है।
आधुनिकता की चकाचौंध में हमारे खान-पान ,आचार-विचार और जीवनशैली पर बडा ही गहरा प्रभाव पडा है। दौलत की भूख ने हमारी रोजमर्रा जिंदगी को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। न जागने का कोई समय है और न ही सोने का। खाना खाने का भी कोई समय तय नहीं। जब समय मिला तब पेट पूजा अन्यथा होटल के समोसे,पकौडे, बर्गर, पैटीज, चाऊमीन और चाय काफी से काम चलाने की आदत सी पड गई है।
निरोगी काया के लिए जरूरी है कि हम सूर्योदय का आनंद लूटें। प्रतिदिन नाश्ता कर के ही काम काज पर जायें और १ से २ बजे के पूर्व लंच समाप्त करें। रात का भोजन भी यदि ८ बजे से पूर्व समाप्त करने की आदत डालें ताकि भोजन उपरांत कम से कम दो तीन घंटे आप बिस्तर पर न जाएं।
आपकी रसोईघर ही तो है आपका प्राथमिक चिकित्सालय, अत: रसोईघर के रख-रखाव पर खास ध्यान दें। रसोई की स्वच्छता आपके आरोग्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अमीर-गरीब, सभी मजहब के लोगों की रसोई घर में जीरा, हल्दी, लौंग, इलायची,काली मिर्च,हींग, मेथी, लहसुन, प्याज, अदरक, राई, अजवायन, धनिया, कलमी, तेजपत्ता, किशमिश, बादाम, अंजीर, गुड, मूँगफली दाना, हरा चना, मूंग, उडद, खजूर, दूध, दही, घी, शहद, हरी साग-सब्जी मिल ही जाएगी। शरीर को शक्कर भी चाहिए और नमक भी।
सर्दी, खांसी,जुकाम,सिरदर्द,पेट दर्द, अम्लपित्त,पेशाब में जलन,पेट के कीडे,दांत दर्द,हल्का फुल्का बुखार से हम सभी आए दिन पीड़ित रहते हैं। इनमें से लगभग सभी पीडाओं से तत्काल मुक्ति हेतु हम दवाखाने जाते हैं और डाक्टर की सलाहनुसार दवा का सेवन भी करते हैं। बहुत अच्छी बात यह है कि हम आरोग्य के प्रति सजग हैं लेकिन ध्यान रहे कि छोटी-छोटी पीडाओं और समस्याओं के लिए चिकित्सालय भागने की जरूरत नहीं क्योंकि आपके अपने घर में ही आपका अपना प्राथमिक चिकित्सालय है। गौर कीजिए। निश्चित रूप से फायदा पायेंगे। आइये अब नजर रसोई घर में उपलब्ध सामग्री और उनके प्रयोग से होने वाले फायदों पर डालें।
हल्दी -हल्दी गुणों की खान है | हल्दी से हाथ पीले हुए बगैर जिंदगी को दिशा नहीं मिलती। हल्दी में औषधीय गुण हैं। एंटीबायोटिक है हल्दी। हल्दी,नमक और थोडा सा सरसों के तेल को मिलाकर मसूडों की मालिश करें। मुख दुर्गंध एवं पायरिया से निजात पायेंगे। गर्म दूध में आधा चम्मच हल्दी प्रतिदिन पिएं, रोगप्रतिरोधक क्षमता में वृद्घि होगी। हड्डियां मजबूत रहेंगी।
एक चम्मच हल्दी को थोडा भूनकर शहद के साथ लें। गला बैठना तंग नहीं करेगा और खांसी फुर्र हो जाएगी। कट जाए,जल जाए,चोट लग जाए हल्दी पाउडर लगाएं,रक्तस्राव बंद हो जाएगा, फोला भी नहीं पडेगा। मोच आ जाए तो एक मोटी रोटी बनाएं उसमें सरसों का तेल व हल्दी डालें। गर्म रोटी को मोच वाली जगह पर बांधे,सूजन छू हो जाएगी। हल्दी चंदन और नीम पाउडर के मिश्रण को चेहरे पर लगाएं। न केवल झाइयां, फुंसियां ठीक हो जाएंगी बल्कि चेहरा भी चमकने लगेगा और फेसवाश भूल जाएंगे।

Wednesday, April 2, 2014

गर्मी में पुदीना खाएंगे तो इन बीमारियों की छुट्टी हो जाएगी

गर्मी में पुदीना खाएंगे तो इन बीमारियों की छुट्टी हो जाएगी -------------
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गर्मी में पुदीना खाने का टेस्ट बढ़ाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि ये एक बहुत अच्छी औषधि भी है साथ ही इसका सबसे बड़ा गुण यह है कि पुदीने का पौधा कहीं भी किसी भी जमीन, यहां तक कि गमले में भी आसानी से उग जाता है। यह गर्मी झेलने की शक्ति रखता है। इसे किसी भी उर्वरक की आवश्यकता नहीं पडती है।
थोड़ी सी मिट्टी और पानी इसके विकास के लिए पर्याप्त है। पुदीना को किसी भी समय उगाया जा सकता है। इसकी पत्तियों को ताजा तथा सुखाकर प्रयोग में लाया जा सकता है।
आज हम आपको बताने जा रहे हैं पुदीने के कुछ लाजवाब गुण
1.मुंहासे दूर करता है
2.श्वांस संबंधी परेशानियों में रामबाण
3.कैंसर में भी है उपयोगी
4. मुंह की दुर्गंध मिटाता है
5. खांसी खत्म करता है
6. गर्मी दूर कर ठंडक पहुंचाता है
7.बुखार में राहत देता है
- हरा पुदीना पीसकर उसमें नींबू के रस की दो-तीन बूँद डालकर चेहरे पर लेप करें। कुछ देर लगा रहने दें। बाद में चेहरा ठंडे पानी से धो डालें।
- कुछ दिनों के प्रयोग से मुँहासे दूर हो जाएँगे तथा चेहरा निखर जाएगा।
- हरे -पुदीने की 20-25 पत्तियां, मिश्री व सौंफ 10-10 ग्राम और कालीमिर्च 2-3 दाने इन सबको पीस लें और सूती, साफ कपड़े में रखकर निचोड़ लें।
-इस रस की एक चम्मच मात्रा लेकर एक कप कुनकुने पानी में डालकर पीने से हिचकी बंद हो जाती है।
- एक चम्मच पुदीने का रस, दो चम्मच सिरका और एक चम्मच गाजर का रस एकसाथ मिलाकर पीने से श्वास संबंधी विकार दूर होते हैं।
- इतना ही नहीं अधिक गर्मी या उमस के मौसम में जी मिचलाए तो एक चम्मच सूखे पुदीने की पत्तियों का चूर्ण और -आधी छोटी इलायची के चूर्ण को एक गिलास पानी में उबालकर पीने से लाभ होता है।
- एक रिसर्च से पता चला है कि यह कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी में लाभकारी है ।
- इसलिए हमें अपने घर के बगीचे में पुदीने का पौधा जरूर लगाना चाहिए,पुदीने का ताजा रस शहद के साथ सेवन करने से ज्वर दूर हो जाता है।
- पेट में अचानक दर्द उठता हो तो अदरक और पुदीने के रस में थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करे।
- नकसीर आने पर प्याज और पुदीने का रस मिलाकर नाक में डाल देने से नकसीर के रोगियों को बहुत लाभ होता है।
- सलाद में इसका उपयोग स्वास्थ्यवर्धक है। प्रतिदिन इसकी पत्ती चबाई जाए तो दुत क्षय, मसूडों से रक्त निकलना, पायरिया आदि रोग कम हो जाते हैं। यह एंटीसेप्टिक की तरह काम करता है और दांतों तथा मसूडों को जरूरी पोषक तत्व पहुंचाता है। एक गिलास पानी में पुदीने की चार पत्तियों को उबालें। ठंडा होने पर फ्रिज में रख दें। इस पानी से कुल्ला करने पर मुंह की दुर्गंध दूर हो जाती है।
- एक टब में पानी भरकर उसमें कुछ बूंद पुदीने का तेल डालकर यदि उसमें पैर रखे जाएं तो थकान से राहत मिलती है और बिवाइयों के लिए बहुत लाभकारी है।पानी में नींबू का रस, पुदीना और काला नमक मिलाकर पीने से मलेरिया के बुखार में राहत मिलती है। इसके अलावा हकलाहट दूर करने के लिए पुदीने की पत्तियों में काली मिर्च पीस लें तथा सुबह शाम एक चम्मच सेवन करें।पुदीने की चाय में दो चुटकी नमक मिलाकर पीने से खांसी में लाभ मिलता है। हैजे में पुदीना, प्याज का रस, नींबू का रस समान मात्रा में मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
- हरे पुदीने की 20-25 पत्तियां, मिश्री व सौंफ 10-10 ग्राम और कालीमिर्च 2-3 दाने इन सबको पीस लें और सूती, साफ कपड़े में रखकर निचोड़ लें। इस रस की एक चम्मच मात्रा लेकर एक कप कुनकुने पानी में डालकर पीने से हिचकी बंद हो जाती है। इतना ही नहीं अधिक गर्मी या उमस के मौसम में जी मिचलाए तो एक चम्मच सूखे पुदीने की पत्तियों का चूर्ण और आधी छोटी इलायची के चूर्ण को एक गिलास पानी में उबालकर पीने से लाभ होता है।
- पुदीने का ताजा रस शहद के साथ सेवन करने से ज्वर दूर हो जाता है तथा न्यूमोनिया से होने वाले विकार भी नष्ट हो जाते हैं। पेट में अचानक दर्द उठता हो तो अदरक और पुदीने के रस में थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करें। नकसीर आने पर प्याज और पुदीने का रस मिलाकर नाक में डाल देने से नकसीर के रोगियों को बहुत लाभ होता है।

Tuesday, April 1, 2014

आम की गुठली फेंके नहीं, ऐसे करेंगे यूज तो ये दवा का काम करेगी

आम की गुठली फेंके नहीं, ऐसे करेंगे यूज तो ये दवा का काम करेगी ...

आम सबसे टेस्टी फल होने के साथ ही अनेक गुणों से भरपूर है। इसीलिए आम को फलों का राजा कहते हैं, लेकिन इसे राजा की पदवी यूं ही नहीं मिली है। खाने में तो यह लाजवाब है ही गुणों में भी बेमिसाल है।
कालिदास ने इसका गुणगान किया है और शतपथ ब्राह्मण में इसका उल्लेख मिलता है। वेदों में आम को विलास का प्रतीक कहा गया है। आम ही नहीं इसके छिलके, गुठली व रस भी बहुत उपयोगी है तो आइए जानते हैं कैसे करें आम से रोगों का उपचार .....

- आम की गुठली के भीतर की गिरी और हरड़ को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें। इस चूर्ण को दूध के साथ मिलाएं। इस लेप को मस्तक पर लगाने से सर दर्द खत्म हो जाता है।

- आम की गुठली के भीतरी गिरी को सुखाकर बारीक चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को पानी के साथ लेने से स्त्रियों का प्रदर रोग दूर होता है।

- आम के 60 ग्राम रस में 20 ग्राम दही और 5 ग्राम अदरक का रस मिलाएं। इसे दिन में दो-तीन बार सेवन करें। अतिसार की समस्या खत्म हो जाएगी।

- आम के पेड़ पर लगे बौर को एरण्ड के तेल में देर तक पकाएं, जब बौर जल जाएं तो तेल को छानकर बूंद-बूंद कान में डालें। कान का दर्द ठीक हो जाएगा।

- आम के रस में शहद मिलाकर लेने से प्लीहा वृद्धि की समस्या खत्म हो जाती है।

- आम का रस 200 ग्राम, अदरक का रस 10 ग्राम और दूध 250 ग्राम मिलाकर पीने से शारीरिक व मानसिक कमजोरी दूर हो जाती है। साथ ही, याददाश्त बढ़ती है।